विदेशों से सीखें हर बूंद पानी बचाना

चेन्नई के भीषण जल संकट के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में जल संचयन पर जोर दिया। प्रधानमंत्री ने 3० जून, 2०19 को 'मन की बातÓ में जल संकट से मुक्ति के लिए जागरूकता अभियान चलाने का अनुरोध किया। उन्होंने ग्राम पंचायतों के सरपंचों को पत्र लिख कर भी जल संरक्षण की तरफ कदम बढ़ाने की अपील की है। इसमें जल संचय, जल संरक्षण और जल संवर्धन पर ध्यान दिया जाना है। 
दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन में मई मध्य तक पानी पूरी तरह खत्म हो जाएगा। हमारे देश में भी 91 प्रमुख जलाशयों में गर्मी तक 2० फीसदी ही जल शेष रहता है लेकिन बारिश के पानी को सहेजकर स्थिति बदली जा सकती है। भारत जब जल संकट के मुहाने पर खड़ा है तो वह उन देशों से बहुत कुछ सीख सकता है जिन्होंने विकट स्थितियों में अपने पानी को सहेज कर दिखाया है। अब जिसे पानी चाहिए, उसे जुटाना होगा, खेती हो या उद्योग। 
इसराइल एक शुष्क पट्टी पर बसा देश है और इस देश ने अनेक मोर्चों पर काम किया है। उनसे पानी का लीकेज रोक कर, खेती में उत्पादन बढ़ा कर, अनुपयोगी चीजों को रिसाइकल करके, खारे पानी को मीठे में बदल कर और शिक्षा के जरिए यह करने में सफलता पाई है। वर्ष 2०13 में इसराइल दुनिया को पानी से जुड़ी टेक्नोलॉजी देकर 2.2 अरब डॉलर कमा रहा था। पूरे इसराइल में 25० स्टोरेज टैंक का नेटवर्क बहुत खास है। ड्रिप सिंचाई तकनीक भी इसी की देन है। गंदे पानी को साफ करके उसका कृषि में इस्तेमाल भी इसराइल बड़े पैमाने पर कर रहा है। वह करीब 8० प्रतिशत पानी का पुन: उपयोग कर पा रहा है। इसराइल के बाद स्पेन आता है जो 17 प्रतिशत पानी का पुन: उपयोग कर रहा है। ऑस्टे्रलिया को 1997 से 2००9 के बीच सबसे खराब सूखे का सामना करना पड़ा था। 43 लाख लोगों के शहर मेलबोर्न में सिर्फ 25.6 फीसदी पानी रह गया था लेकिन कुछ नीतियां लागू करके शहर ने पानी की जरूरत को 5० फीसदी घटा लिया। हर क्षेत्र में एक वॉटर मैनेजर नियुक्त किया गया जो जल निकायों, शहरी एजेंसियों और जलाशयों के प्रबंधकों को पानी का किफायती उपयोग करने पर मजबूर करता था। 
सरकार ने 6 अरब डॉलर की लागत से समुद्री पानी को मीठे पानी में बदलने का प्लांट स्थापित किया था पर खेती और घरों में इस्तेमाल पानी को रिसाइकिल करने पर सरकार ने इतना जोर दिया कि प्लांट के इस्तेमाल की जरूरत ही नहीं पड़ी। लोगों ने भी घरों में वर्षा के पानी को एकत्र करने के लिए छोटे-छोटे तालाब बनाए। सूखे के अंत तक हर तीन नागरिकों पर एक तालाब था। 
 जगह-जगह इलेक्ट्रानिक बोर्ड लगाए गए जिसमें शहर के जलाशयों के घटते जल स्तर के नवीनतम आंकड़े होते। उससे लोगों को रोज आगाह किया जाता कि अब शहर में इतना ही पानी बचा है। इससे लोग पानी का किफायती उपयोग करने पर मजबूत होते। स्कूलों में बच्चों को पानी की बचत करने पर शिक्षित किया गया। घरों व कारखानों से निकलने वाले पानी को बचाने के लिए ढांचा विकसित किया गया। 
सिंगापुर छोटा देश है लेकिन जनसंख्या अधिक है। 1977 में ही इस देश ने जल की अहमियत को समझते हुए 1० वर्षीय कार्यक्र म अपना लिया था जिसके तहत उन्होंने बड़े पैमाने पर जल मार्गों या जलस्रोतों की सफाई की। जिन गतिविधियों के कारण जलस्रोत प्रदूषित हो रहे थे उन्हें ऐसी जगह शिफ्ट किया गया जो जलस्रोतों से दूर थी। 26 हजार परिवारों को भी सार्वजनिक मकानों में शिफ्ट किया गया ताकि उनकी जरूरतों का बोझ जल संरचनाओं पर न पड़े। 
 इसका नतीजा यह हुआ सिंगापुर नदी स्वच्छ हो गई और यह 1987 से ही प्रदूषण रहित बनी हुई है। इस नदी में अब कई तरह के जलीय जीव रहते हैं और यह वर्षा जल को सहेजने में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी अदा करती है। स्वच्छ नदियों के बावजूद सिंगापुर आज भी अपनी आबादी की जल जरूरत को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहा है। इस आईलैंड देश में वर्षा बहुलता में होती है लेकिन जमीन कम होने से अधिक वर्षा जल को संग्रहीत नहीं किया जा सकता 
है। 
 अपनी जल जरूरतों को पूरा करने के लिए इस देश ने वर्षा के समय सतह पर उपलब्ध होने वाले अतिरिक्त जल को सहेजना शुरू किया। उन्होंने बाढ़ पर नियंत्रण किया और पानी के बहने की दिशा तय की। इसके लिए नहरों और नालों का जाल बिछाया गया और यह करीब 8 हजार किलोमीटर तक फैला है। इसने 4० वर्षों में करीब 98 प्रतिशत सिंगापुर को बाढ़ से बचाने का काम किया और वर्षा जल को उन 17 रिजर्वायर में भेजा जहां उसे सहेजा गया। इसे इस तरह ट्रीट किया गया कि यह पीने लायक बन जाए। यहां कैचमेंट क्षेत्र की सुरक्षा बड़ी ही जिम्मेदारी के साथ की जाती है। 
 जर्मनी में वर्षा जल संरक्षण का काम एक पर्यावरण की रक्षा करने वाले समूह द्वारा प्रेरित है। जब वर्षा जल को बचाने का महत्त्व लोग समझते गए, यह अभियान बढ़ता चला गया। लोगों ने सरकारी इमारतों, निजी मकानों और संपत्तियों और उद्योगों की छत पर वर्षा जल को संग्रहीत करने की व्यवस्था की। इस प्रयास का मतलब यह भी था कि टॉयलेट में पेयजल का उपयोग न किया जाए और उसके लिए वर्षा जल को इस्तेमाल में लिया जाए। जैसे-जैसे वर्षा जल को सहेजने के सिस्टम की मांग बढ़ती गई, उसकी सप्लाई भी उसी अनुपात में बढ़ी। 
 1999 में वर्षा जल के संग्रहण के लिए जरूरी सिस्टम तैयार करने वाले करीब 1०० व्यावसायिक प्रतिष्ठान कार्यरत थे। वर्ष 1989 से 1999 के बीच जर्मनी के बिजनेस मॉल बेटॉन जीएमबीएच ने करीब 1 लाख रेन वॉटर फेब्रिकेटेड टैंक पूरे जर्मनी में वितरित किए। इन टैंकों में जो पानी संग्रहीत किया जाता था उसका इस्तेमाल मामूली जरूरतों के लिए किया जाता था। सरकार ने उन संस्थाओं को मदद देना शुरू किया जो वर्षा के जल को सीवरेज में जाने से रोक रहे थे। 
जो भी लोग अपने घरों में रेनवॉटर हार्वेस्ंिटग सिस्टम लगा रहे थे, उन्हें आर्थिक मदद भी दी गई। वर्षा जल को सीवरेज में न जाने देने का उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया 'पोस्टडामेर प्लाट्जÓ ने। बर्लिन में यह प्रयोग अनूठा था। यहां कौंसिल ने वर्षा जल को लेकर बहुत सख्त प्रबंधन अपनाया। इस प्रोजेक्ट के तहत उन्होंने एक प्रतिशत से ज्यादा वर्षा जल सीवेज में नहीं जाने देना तय किया। इस नियम पर चलते हुए 19 इमारतों का निर्माण किया गया जिनसे एक प्रतिशत से अधिक वर्षा जल सीवेज में नहीं जाता था। 
 नरेंद्र देवांगन