हम सब गीता को पवित्रा मानकर इसका पाठ करते हैं व इसकी पूजा करते हैं। न्यायालयों में हम गीता पर हाथ रखकर ही सच और केवल सच बोलने की क़सम खाते हैं। गीता के महत्त्व का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा?
श्रीमदभगवतगीता एक धार्मिक, आध्यात्मिक ही नहीं एक जीवनोपयोगी मनोवैज्ञानिक ग्रंथ भी है लेकिन इस सब के बावजूद भी क्या हम गीता से जुड़े हुए हैं? गीता में कहा गया है:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
मनुष्य फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करे, यही संदेश तो देती है गीता। मनुष्य के लिए सबसे अनिवार्य है कर्म। विभिन्न पुस्तकों के माध्यम से मनीषियों द्वारा इस संसार सागर को पार करने अथवा मोक्ष-प्राप्ति के तीन मार्ग बतलाए गए हैं: भक्ति, ज्ञान और कर्म। जो व्यक्ति नियमित रूप से कर्म करता हुआ व्यस्त रहता है उसे बाक़ी चीज़ों के लिए समय ही कहाँ मिल पाता है।
कुछ लोग अच्छे साधक भी होते हैं इसमें संदेह नहीं लेकिन थोड़ी सफलता प्राप्त कर लेने के बाद प्राय: अहंकारी हो जाते हैं। भक्ति और ज्ञान की तरह कर्म के मार्ग में ये ख़तरे नहीं हैं। निरंहकार रहकर अपने कर्म, सेवा अथवा मज़दूरी द्वारा दूसरों की मदद करने वाला किसी भी प्रकार से एक योगी से कम नहीं। एक किसान अथवा मज़दूर सबसे बड़ा योगी है क्योंकि पूरे संसार के लोगों का पेट भरने की खातिर वह चुपचाप कर्म रूपी मौन साधना में रत रहता है।
गीता के पठन-पाठन और स्वाध्याय के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता लेकिन क्या केवल गीता सुनने, उसका संदेश रटने मात्रा से धर्म लाभ हो सकता है? शायद नहीं।
गीता जीवनग्रंथ है। यह जीवन जीने की कला सिखाता है। गीता का पठन-पाठन और स्वाध्याय ज़रूरी है ताकि इसका संदेश स्पष्ट हो सके लेकिन गीता का महत्त्व गीता से यथार्थ रूप में जुडऩे अर्थात् जीवन में कर्म को सर्वोपरि मानने और कर्म में संलग्न होने में है और वो भी पूर्णत: निष्काम भाव से।
सीताराम गुप्ता
अध्यात्म: कर्मण्येवाधिकारस्ते