राजधानी दिल्ली का प्रदूषण इन दिनों सर्वाधिक सुर्खियों में है। दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों के साथ उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण का विकराल रूप यही बता रहा है कि उस नियंत्रण को पाने के दावे खोखले साबित हुए। ये दावे इसलिए खोखले साबित हुए क्योंकि जिन पर भी वायुमंडल को दूषित होने से बचाने की जिम्मेदारी है, उन्होंने कुछ न करना ही बेहतर समझा।
वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुंच जाने के बाद उस पर लगाम लगाने के लिए नए सिरे से सक्रि यता भले दिखाई जा रही हो लेकिन उससे स्थिति संभलने के आसार कम ही हैं। वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए आधे-अधूरे उपाय ही किए जा रहे हैं। यदि यह समझा जा रहा है कि वायु प्रदूषण को सेहत के लिए आपातकाल के तौर पर रेखांकित करने से कुछ हासिल हो सकता है तो यह सही नहीं है। आखिर आपात स्थिति की घोषणा वायु प्रदूषण को कम करने में सहायक कैसे हो सकती है?
कुछ माह पूर्व ही पर्यावरणीय क्षेत्र में काम करने वाली प्रमुख संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट(सीएसई) ने रिपोर्ट में बताया था कि वायु प्रदूषण भारत में स्वास्थ्य संबंधी सभी खतरों में मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण बन गया है। यह वायु में घुल रहे पीएम 2.5 कण, ओजोन एवं घर के भीतर के प्रदूषण का सामूहिक प्रभाव है। इस सामूहिक प्रभाव की वजह से भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों के लोगों की जीवन प्रत्याशा ढाई साल कम रह गई है। यह दुनिया भर में कम हो रही जीवन प्रत्याशा के आंकड़ों से डेढ़ गुना अधिक है। अध्ययन में सामने आया है कि वायु प्रदूषण में बाहरी वातावरण में घुले पीएम कणों के दुष्प्रभाव से जीवन जीने की अवधि कम होती जा रही है। इसके लिए घर के बाहर और भीतर दोनों तरह का वायु प्रदूषण जिम्मेदार है।
वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर तक पहुंच जाने की एक बड़ी वजह यह है कि उसके मूल कारणों को समझने और उनका निवारण करने की जरूरत नहीं समझी जा रही है। ऐसा तब है जब बीते करीब एक दशक से वायु प्रदूषण एक खतरे के रूप में चित्रित हो रहा है। दिल्ली के प्रदूषण की सुर्खियों के बीच अन्य प्रदेशों के प्रदूषण की स्थिति पर चर्चा नहीं हो रही है जबकि हाल ही में एक नए शोध में सामने आया है कि कई प्रदेशों की हवा भी तेजी से जहरीली होती जा रही है। इसके दुष्प्रभाव के परिणामस्वरूप इन प्रदेशों में रहने वाले लोगों की उम्र औसतन करीब साढ़े तीन साल कम हो गई है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में यह औसत 3.18 साल पायी गयी है।
यह शासन व्यवस्था की नाकामी का नमूना ही है कि वायु प्रदूषण की चिंता केवल सर्दियों में ही की जाती है। क्या शेष समय उत्तर भारत का वायुमंडल साफ-सुथरा रहता है? जो भी हो, तमाम कवायद के बाद भी वायु प्रदूषण का बढ़ता स्तर एक तरह से जीने के अधिकार पर आघात ही है। सवाल यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय हरित अधिकरण भी प्रदूषण की प्रभावी रोकथाम क्यों नहीं कर सके? वायु प्रदूषण का खतरनाक स्तर व्यवस्था की सामूहिक विफलता का शर्मनाक उदाहरण ही है। यह विफलता आम जनता की सेहत से खिलवाड़ करने वाली ही नहीं, देश की बदनामी कराने वाली भी है।
अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय की शोध संस्था एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट एट यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो(एपिक) द्वारा तैयार किए गए वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (क्यूएलआई) में विभिन्न प्रदेशों के वायु प्रदूषण का खुलासा हुआ है। इस संस्था ने जिलों के अनुसार यह क्यूएलआई तैयार किया है। इस सूचकांक से साफ जाहिर होता है कि वायु प्रदूषण जीवन के लिए बहुत खतरनाक बनता जा रहा है। हर कोई इससे परिचित है कि पंजाब और हरियाणा में फसलों के अवशेष जलाए जाने से जब उनका धुआं धूल और वाहनों के उत्सर्जन से मिलता है तब वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंचता है लेकिन इन सभी कारणों का निवारण करने की कोई स्पष्ट नीति कहीं नजर नहीं आती।
वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश में हर 1०वां व्यक्ति अस्थमा का शिकार है। गर्भ में पल रहे भ्रूण पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है और कैंसर के मरीजों की तादाद दिनोंदिन बढ़ रही है। ऐसा नहीं है कि केवल फसलों के अवशेष जलाने से ही प्रदूषण की समस्या सिर उठाती हो। जब उनका धुआं सड़कों और निर्माण स्थलों से उडऩे वाली धूल और वाहनों के उत्सर्जन से मिलता है तो वह सेहत के लिए जानलेवा स्मॉग में तब्दील हो जाता है। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक में त्वचा, श्वास, लिवर, फेफड़ों, हृदय, आंख, गला, रक्तचाप, किडनी आदि की अनेक बीमारियां पैदा हो रही हैं। आखिर इस दमघोंटू वातावरण के लिए जिम्मेदार भी तो हम लोग ही हैं।
आखिर यह कैसे नए भारत का निर्माण हो रहा है कि लोगों की जान पर बन आ रही है? गौरतलब है कि देश में होने वाली मौतों में 12.5 फीसद का कारण वायु प्रदूषण है। इन दिनों उत्तर भारत जैसे भीषण वायु प्रदूषण से जूझ रहा है, उससे यही पता चल रहा है कि देश के शहरों को दुनिया के साफ-स्वच्छ शहरों जैसा बनाने के वादे करने वाले हमारे नीति- नियंता किस तरह खोखले दावे करने में माहिर हो गए हैं। वायु प्रदूषण लड़कों की तुलना में लड़कियों के लिए ज्यादा जोखिम भरा है। इसके कारण एक लाख बच्चियों में से 96 की पांच साल पूरे होने से पहले ही मौत हो जाती है। ये आंकड़े वायु प्रदूषण की भयावहता को दर्शाते हैं।
निस्संदेह दीपावली के दौरान पटाखे दागे जाने के कारण भी वायुमंडल खराब होता है लेकिन केवल उन्हें ही जिम्मेदार ठहराना समस्या का सरलीकरण करना ही है। इस बार तो कहीं कम पटाखे चलाए गए लेकिन प्रदूषण का स्तर कहीं अधिक गंभीर हो गया। स्पष्ट है कि समस्या की जड़ में शासन-प्रशासन का मूकदर्शक बने रहना ही है। इसी कारण बीते लगभग एक दशक से सर्दियों में उत्तर भारत का वायुमंडल सेहत के लिए संकट खड़ा कर देता है। हमें गंभीरता से समझना होगा कि चाहे कोई भी प्रदूषण हो, सभी साइलेंट किलर हैं। वायु में घुलते कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, ओजोन, सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड आदि धीरे-धीरे मौत के गर्त में ले जाते हैं।
वायु प्रदूषण का संकट वर्ष दर वर्ष जिस तरह गंभीर रूप लेता जा रहा है, उससे यही पता चलता है कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए काम कम और बातें अधिक की जा रही हैं। इसका एक प्रमाण यह है कि इस बार पंजाब में फसलों के अवशेष कहीं अधिक जले। यह नाकारापन की मिसाल नहीं तो और क्या है? समय-समय पर वायु प्रदूषण को लेकर कई तरह की रिपोर्ट हमारे समक्ष आती हैं और वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या पर ध्यान आकर्षित किया जाता है लेकिन इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है।
नरेंद्र देवांगन
मुद्दा: मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण वायु प्रदूषण