सर्वत्र मिलने वाले काले-स्याह या हल्के-भूरे रंग के कौवों से भला कौन परिचित न होगा? संस्कृत में इन्हें काग, काक तथा वायस भी कहते हैं। कौवे सड़ी-गली वस्तुएं, मांस और अन्न आदि का भोजन करते हैं, इसलिए इन्हें नीच माना जाता है। श्राद्ध-पक्ष में हिन्दू लोग इन्हें अवश्य ही ताजा भोजन देते हैं।
कहते हैं, पक्षियों में कौवा और पशुओं में श्रृगाल या सियार सबसे चालाक होते हैं। कोयल और कौवे में कोई खास भेद नहीं होता, इसे सरल संस्कृत श्लोक में कहा भी गया है कि
काक: कृष्ण: पिक: कृष्ण:, को भेदोपिक: काकयो:।
बसन्ते समये प्राप्ते, काक: काक: पिक: पिक:।।
अर्थ है कौवे का रंग भी काला होता है और कोयल का भी। दोनों में क्या भेद है? यों देखने में कोई अंतर नहीं है किंतु बसंत ऋतु आने पर कोयल की मीठी बोली सबका मन मोह लेती है। कौवे की कांव-कांव पर किसी का भी ध्यान नहीं जाता।
कौवे के साथ कोयल की एक चालाकी बहुत प्रसिद्ध है। कोयल बहुधा अपने अण्डे स्वयं नहीं सेती वरन् यह कार्य बेगार के रूप में कौवों से कराती है। अवसर पाकर कोयल कौवे के घोंसले में अपने अण्डों को रख देती है। कौवों की एक ही आंख होती है, दूसरी कानी होती है, अत: इन्हें कम दिखाई देता है। दूसरे, दोनों के अण्डों में कोई अंतर नहीं होता, अत: कौवे उन्हें पहचान नहीं पाते और उन्हें सेते रहते हैं। उडऩे लायक होते ही कोयल के बच्चे उड़ जाते हैं।
कोयल एक और चालाकी से काम लेती है-वह अपने अण्डे कौवे के घोंसले में रखते समय कौवों के उतने ही अण्डों को नष्ट कर देती है ताकि कौवों को शक न हो व उसका काम न बिगड़े।
भोजन पाते ही कौवे काँव-कांव की कर्कश आवाज करके अपने अन्य साथियों को बुलाने व उन्हें दावत देने के लिए बड़े ही उदार व प्रसिद्ध हैं। उनका यह गुण अनुकरणीय है। एक संस्कृत श्लोक में कवि ने इन गुणों की प्रशंसा करते कहा है-
काक आहृयते काकान्, याचको न तु याचकम्।
काकयाचकयोर्मध्ये वरं काको, न याचक:।।
अर्थ है:- भोजन पाते ही कौवे प्रसन्न मन से अपने अन्य साथियों को बुलाते हैं और उन्हें भी खाने के लिए प्रेरित करते हैं किंतु इस मामले में भिखारी अधिक स्वार्थी होते हैं। वे भोजन पाने की संभावना या निमंत्रण होने पर उसकी सूचना अपने अन्य साथियों को नहीं देते। क्योंकि उन्हें डर होता है कि ऐसा करने से कहीं उनका अपना हिस्सा कम न हो जाये। कवि कहता है-ऐसे भिखारियों से तो कौवे ही श्रेष्ठ हैं जो बांटकर खाना तो जानते हैं। देखा न आपने, कौवे कितने उदार होते हैं।
पक्षियों में कौवा नीच और चंचल माना जाता है, साथ ही यह एक विकट प्राणी भी है क्योंकि किसी अन्य प्राणी को वह अपने घोंसले के पास फटकने तक नहीं देता वरन् चिल्ला-चिल्लाकर आसमान सिर पर उठा लेता है। खतरे के समय छोटे-मोटे हमलावर पर ये सब मिलकर वार भी करते हैं किंतु यह जितना क्रूर है, उतना ही उदार भी। इस बात का पता उस समय लगता है, जब वह अपने वृक्ष की डाली, जिस पर उसका घोंसला होता है, की निचली टहनियों को छोटे-छोटे पक्षियों को घोंसले बनाने के लिए सौंप देता है। वह उन्हें घोंसले बनाने में सहायता भी देता है तथा कभी-कभी उनके अण्डों व बच्चों की रक्षा भी करता है।
ललित नारायण उपाध्याय
कौवा चालाक व नीच ही नहीं, उदार भी!