गांधी जी जो कभी सन 1888 में कानून के एक छात्र के रूप में इंग्लैंड में टाई सूट पहना करते थे, उन्होंने खादी को कैसे और क्यों अपनाया, कैसे वे केवल एक धोती पहनने लगे, यह जानना रोचक तो है ही, उनके सत्याग्रह के अद्भुत वैश्विक प्रयोग के मनोविज्ञान को समझने के लिये आवश्यक भी है। 1888 के बैरिस्टर गांधी 1921 में मदुरई में केवल धोती में दिखे तो जानना आवश्यक है कि इस बीच आखिर ऐसा क्या हुआ कि बैरिस्टर गांधी ने अपना सूट छोड़ खादी की धोती को अपना परिधान बना लिया। गांधी जी ने देश में बिहार के चंपारण जिले में पहली बार सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया था।गांधी जी जब चंपारण पहुंचे तब वो कठियावाड़ी पोशाक में थे। एक शर्ट, नीचे एक धोती, एक घड़ी, एक सफेद गमछा, चमड़े का जूता और एक टोपी उनकी पोशाक थी। ये सब कपड़े या तो भारतीय मिलों में बने या फिर हाथ से बुने हुए थे।
यह वो समय था जब पश्चिम में कपड़ा बनाने की मशीनें चल निकली थीं। औद्योगिक क्र ांति थी। मशीन से बना कपड़ा महीन होता था। इन कपड़ों की मिलों के लिये बड़ी मात्रा में कपास की जरूरत पड़ती थी। कपड़े की प्रोसेसिंग के लिये बड़ी मात्रा में नील की आवश्यकता भी होती थी। बिहार के चंपारण क्षेत्र की उपजाऊ जमीन में अंग्रेजों के फरमान से नील और कपास की खेती अनिवार्य कर दी गई थी। उस क्षेत्र के किसानों को उनकी स्वयं की इच्छा के विपरीत केवल नील और कपास ही बोना पड़ता था। एक तरह से ये सारे किसान परिवार अंग्रेजों के बंधक बन चुके थे।
जब चंपारण के मोतिहारी स्टेशन पर 15 अप्रैल 1917 को दोपहर में गांधी जी उतरे तो हजारों भूखे, बीमार और कमजोर हो चुके किसान गांधी जी को अपना दुख-दर्द सुनाने के लिए इक_े हुए थे। इनमें से बहुत सी औरतें भी थीं जो घूंघट और पर्दे में गांधी जी को आशा भरी आंखों से देख रही थीं।
स्त्रियों ने उन पर हो रहे जुल्म की कहानी गांधी जी को सुनाई कि कैसे उन्हें पानी तक लेने से रोका जाता है, उन्हें शौच के लिए एक खास समय ही दिया जाता है। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा जाता है। उन्हें अंग्रेज फैक्ट्री मालिकों के नौकरों और मिडवाइफ के तौर पर काम करना होता है। उन लोगों ने गांधी जी को बताया कि इसके बदले उन्हें कुल एक जोड़ी कपड़ा दिया जाता है। उनमें से कुछ को अंग्रेजों के लिए दिन-रात यौन दासी के रूप में उपलब्ध रहना पड़ता है। यह गांधी जी का कड़वे यथार्थ से पहला साक्षात्कार था। गांधी जी ने देखा कि नील फैक्ट्रियों के मालिक निम्न जाति की औरतों और मर्दों को जूते नहीं पहनने देते। एक ओर कड़क अंग्रेज हुकूमत थी दूसरी ओर गांधी जी में अपने कष्टों के निवारण की आशा देखती गरीब जनता थी। किसी तरह की गवर्निंग ताकत विहीन गांधी के पास केवल उनकी शिक्षा थी, संस्कार थे और आकांक्षा लगाये असहाय लोगों का जन समर्थन था ।
गांधी जी ने बचपन से मां को व्रत, उपवास करते देखा था। वे तपस्या का अर्थ समझ रहे थे। उन्होंने देखा कि अपने पास मदद की गुहार लगाने आये किसानों के लिये अंग्रेजों से तुरंत कुछ पा लेना सरल नहीं था। मदहोश सत्ता से याचक बनकर कुछ पाया भी नहीं जा सकता। जन बल ही गांधी जी की शक्ति बन सकता था और पर उपदेश कुशल बहुतेरे की अपेक्षा स्वयं सामान्य लोगों का आत्मीय हिस्सा बनकर जनसमर्थन जुटाने का मार्ग ही उन्हें सूझ रहा था। मदद मांगने आये किसानों को जब गांधी जी ने नंगे पांव या चप्पलो में देखा तो उनके समर्थन में तुरंत स्वयं भी उन्होंने जूते पहनने बंद कर दिए। गांधी जी ने 16 और 18 अप्रैल 1917 के बीच ब्रितानी अधिकारियों को दो पत्र लिखे जिसमें उन्होंने ब्रितानी आदेश को नहीं मानने की मंशा जाहिर की थी। यह उनका सत्याग्रह था।
8 नवंबर 1917 को गांधीजी ने सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू किया। वो अपने साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर चंपारण पहुंचे। इनमें से छह महिलाएं थीं। अवंतिका बाई, उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी, मनीबाई पारीख, आनंदीबाई, श्रीयुत दिवाकर (वीमेंस यूनिवर्सिटी आफ पूना की रजिस्ट्रार) का नाम इन महिलाओं में शामिल था। इन लोगों ने तीन स्कूल यहां शुरू किए। हिन्दी और उर्दू में लड़कियों और औरतों की पढ़ाई शुरू हुई। इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया गया। लोगों को कुंओं और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया।गांव की सड़कों को भी सबने मिलकर साफ किया। गांधी जी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज, नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाएं। कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा, 'बा, आप मेरे घर की हालत देखिए।
आपको कोई बक्सा दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है। आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दें ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं। यह सुनकर गांधी जी ने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढऩा बंद कर दिया।
सत्य को लेकर गांधीजी के प्रयोग और उनके कपड़ों के जरिए इसकी अभिव्यक्ति अगले चार सालों तक ऐसे ही चली जब तक कि उन्होंने लंगोट या घुटनों तक लंबी धोती पहनना नहीं शुरू कर दिया। 1918 में जब वे अहमदाबाद में कारखाना मजदूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितना कपड़ा लगता है, उसमें 'कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है। उन्होंने तभी से पगड़ी पहनना छोड़ दिया था। मैनचेस्टर की मिलों में कपास पहुंचाने के लिए किसानों को इसकी खेती के लिए मजबूर किया जाता था, इसलिये किसानों के पक्ष में मशीनीकरण के विरोध का स्वर उपजा। 31 अगस्त 192० को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली। उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था, 'आज के बाद से मैं जिंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा।, उस भीड़ में बिना किसी अपवाद के हर कोई विदेशी कपड़ों में मौजूद था। गांधी जी ने सबसे खादी पहनने का आग्रह किया। उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा कि क्या हम इतने गरीब हैं कि खादी नहीं खरीद पाएंगे ?
गांधीजी कहते हैं, 'मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया। मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती थी। यह पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करता था जहां देश के लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे। चार इंच की लंगोट के लिए जद्दो जहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थी। मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता था जब तक कि मैं खुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता हूं तो। मदुरई में हुई सभा के बाद अगली सुबह से कपड़े छोड़कर और धोती को अपनाकर मैंने स्वयं को आम आदमी के साथ खड़ा कर लिया। 'छोटी सी धोती और हथकरघे से बुना गया शाल विदेशी मशीनों से बने कपड़ों के बहिष्कार के लिए हो रहे सत्याग्रह का प्रतीक बन गया। इसने गरीबों के साथ गांधीजी की एकजुटता के साथ-साथ यह भी दिखाया कि साम्राज्यवाद ने कैसे भारत को कंगाल बना दिया था।
यह गांधी की खादी की ताकत ही रही कि अब मोतिहारी में नील का पौधा महज संग्रहालय में सीमित हो गया है।
इस तरह खादी को महात्मा गांधी ने अहिंसक हथियार बनाकर देश की आजादी के लिये उपयोग किया और ग्राम स्वावलंबन का अभूतपूर्व उदाहरण दुनियां के सामने प्रस्तुत किया। खादी में यह ताकत कल भी थी, आज भी है।
केवल बदले हुये समय और स्वरूप में खादी को पुन: वैश्विक स्तर पर विशेष रूप से युवाओं के बीच पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है। खादी मूवमेंट आज भी रोजगार, राष्ट्रीयता की भावना और खादी का उपयोग करने वालों और उसे बुनने वालों को परस्पर जोडऩे में कारगर है।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
कैसे और क्यों गांधी जी सूट कोट पैंट से धोती में आ गये!